शिकारी
ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने
शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया
और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का
वचन देकर बंधन से छूट गया।
अपनी
दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह
में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब
के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो
बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।
पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।
एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब
पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा
खींची, मृगी बोली, ‘मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो
जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र
ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।’ शिकारी ने
प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।
कुछ
ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न
रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने
विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से
निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ।
मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।’
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