शिकारी
ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में
पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के
साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर
तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे
पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत
मार।’
शिकारी
हँसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे
पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे
होंगे।’
उत्तर
में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक
वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए
जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के
पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।’
मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र
तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग
उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।
शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,’ हे पारधी भाई!
यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार
डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक
क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें
जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे
मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।’
मृग
की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने
सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार
प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर
पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे
भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।’
उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति
का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की
अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के
कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।
थोड़ी
ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका
शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक
प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की
झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव
हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।
देव
लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही
देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को
प्राप्त हुए।’